Monday 29 October 2012

भगवान् विष्णु का परमपद के चार भेद

विष्णु पुराण : प्रथम अंश: अध्याय 22: श्लोक 44-49

सब वस्तुओं का जो कारण होता है वही उसका साधन भी होता है, और जिस अपनी अभिमत वास्तु की सिद्धि की जाती है वही साध्य कहलाती है। 
मुक्ति की इच्छा वाले योगीजनों के लिए प्राणायाम आदि साधन हैं और परब्रह्म ही साध्य है, जहाँ से लौटना नहीं पड़ता।
जो योगी की मुक्ति का कारण है वह साध्नालंबन ज्ञान ही उस ब्रह्मभूत परमपद का प्रथम भेद है।
क्लेश बंधन से मुक्त होने के लिए योगाभ्यासी योगी का सध्यारूप जो ब्रह्म है उसका ज्ञान ही आलंबन विज्ञान नामक दूसरा भेद है।
इन दोनों साध्य साधनों का अभेदपूर्वक जो अद्वैतमय ज्ञान है वह तीसरा भेद है।
उक्त तीनो प्रकार के ज्ञान का निराकरण करने पर अनुभव हुए आत्मस्वरूप के समान ज्ञानस्वरूप भगवान् विष्णु का जो अनिर्वचनीय , आत्मबोध स्वरुप अलक्षण रूप है वह ब्रह्म ज्ञान चौथा भेद है।

Friday 26 October 2012

श्री विष्णु पुराण : भगवान विष्णु का स्वरुप


प्रथम अंश : अध्याय 22 : श्लोक 68-74
इस जगत के निर्मल निर्गुण और निर्लेप आत्मा को अर्थात शुद्ध क्षेत्रज्ञ स्वरुप को श्री हरि कौस्तुभ मणि रूप से धारण करते हैं।
श्री अनंत ने प्रधान ( प्रकृति) को श्रीवत्स रूप से धारण किया है और बुद्धि श्रीमाधव की गदा रूप से स्थित है।
भूतों के कारण तामस अहंकार और इन्द्रियों के कारण राजस अहंकार इन दोनों को वे शंख और धनुष रूप से धारण करते हैं।
अपने वेग से पवन को भी पराजित करने वाला अत्यंत चंचल सात्विक अहंकार रूप मन श्री विष्णु भगवान् के कर कमलों में स्थित चक्र का रूप धारण करता है।
भगवान् गदाधर की जो पञ्चरूपा वैजन्ती माला है वह पंच्तान्मत्राओं और पंचभूतों का ही संघात है।
जो ज्ञान और कर्ममयी इन्द्रियां हैं उनको भगवान् जनार्दन बाण रूप से धारण करते हैं।
भगवान् अच्युत जो अत्यंत निर्मल खडग धारण करते हैं वह अविद्यामय कोष से आक्षादित विद्यामय ज्ञान ही है।
इस प्रकार पुरुष, प्रधान, बुद्धि , अहंकार, पञ्चमहाभूत, मन और इन्द्रियां , तथा विद्या और अविद्या सभी श्री भगवान् में आश्रित हैं।

Friday 5 October 2012

YOG DARHSAN 2

11. पहले अनुभव किये गए विषयों का छिपा न रहना अर्थात प्रकट हो जाना स्मृति कहलाती है।

12. चित वृतियों का निरोध अभ्यास से होता है।

13. वहाँ चित की स्थिरता के लिए जो प्रयास किया जाता है उसे अभ्यास कहते हैं।

14. किन्तु वह अभ्यास लम्बे समय तक निरंतर और सत्कारपूर्वक सेवन किए जाने पर दृढ़ स्थिति वाला हो जाता है।

15. देखे हुए और सुने हुए विषयों में जो पूर्णरूपेण तृष्णा रहित है , ऐसे चित की अवस्था को वैराग्य कहते हैं।

16. पुरुष ( आत्मा ) के ज्ञान से प्रकृति के गुणों में तृष्णा का पूरी तरह अभाव हो जाना परम वैराग्य कहलाता
है।

17. वितर्क , विचार , आनंद एवं अस्मिता इनके अनुगम सहयोग अथवा सम्बन्ध से सम्प्रज्ञात योग की स्थिति आती है।

18. जिसकी पूर्व अवस्था विराम प्रत्यय का अभ्यास है तथा जिसमें चित की स्थिति मात्र संस्काररूप ही शेष बचती है , वह असम्प्रज्ञात योग है।

19. असम्प्रज्ञात समाधि विदेह और प्रक्रितिलय वाले योगियों की होती है।

Thursday 4 October 2012

YOG DARSHAN- 1

1. अथ योगनुशाशनम।।
- अब योग विषयक शाश्त्र का आरम्भ करते हैं।

2. योगाश्र चित वृति निरोधः।।
- चित की वृतियों का सर्वथा रुक जाना अथवा नियंत्रित हो जाना योग है।

3. तदा दृष्टुः   स्वरूपे अवास्थानम।।
- उस समय देखने वाले का अपने स्वरुप में अवस्थान हो जाता है ( स्थिति हो जाती है )

4. वृति सारूप्यम इतरत्र।।
- वृतियों के सामान रूप वाला दूसरी अवस्था में प्रतीत होता है।

5. वृतयः पंचतय्यः क्लिष्टा  अक्लिष्टाः।।
- वृतियां पांच तरह की हैं जो दुःख की उत्पादक और दुःख का नाश करने वाली हैं।

6. प्रमाण विपर्यय विकल्प निद्रा स्म्रतयः।।
- प्रमाण विपर्यय विकल्प निद्रा और स्मृति ये पांच वृतियां हैं।

7. प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।
- प्रत्यक्ष , अनुमान , आगम ( शाश्त्र ) प्रमाण हैं।

8. विपर्ययो मिथ्याज्ञानम अत्द्रुपष्ठितम।।
- जो उस पदार्थ के रूप में प्रतिष्ठित नहीं है इस प्रकार का झूठा ज्ञान विपर्यय है।

9. शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।
- जो शब्द और ज्ञान  के  अनुसार उभरती हो, ऐसी वृति जो विषयगत वस्तु  शून्य हो विकल्प कहलाती है।

10. अभावप्रत्ययालाम्बना वृतिनिद्राः।।
- जो वृति अभाव के ज्ञान का अवलम्बन करने वाली है वह निद्रा कहलाती है। 

Monday 1 October 2012

GOD IN LING PURAN

अदृश्य जो शिव है वह दृश्य प्रपंच (लिंग ) का मूल है . इससे शिव को अलिंग कहते हैं और अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा गया है . इसलिए यह दृश्य जगत भी शैव यानी शिवस्वरूप है .  प्रकृति और प्रधान को ही उत्तमोलिंग कहते हैं। वह वर्ण , गंध  , रस हीन है और शब्द , स्पर्श , रूप आदि से रहित है  परन्तु शिव अगुणी , ध्रुव और अक्षय हैं। उनमें गंध , रस , वर्ण तथा शब्द , स्पर्श आदि लक्षण हैं। जगत आदि कारण , पंचभूत स्थूल और सूक्ष्म शरीर जगत का स्वरुप सभी अलिंग शिव से ही उत्पन्न होता है। 

यह संसार पहले सात प्रकार से , आठ प्रकार  से  और ग्यारह प्रकार से उत्पन्न होता है। तीनो देवता  ( ब्रह्मा , विष्णु , रूद्र ) शिव रूप ही हैं। उनमें वे एक स्वरुप से उत्पत्ति , दुसरे से पालन और तीसरे से संहार करते हैं। अतः उनको शिव का ही स्वरुप जानना चाहिए। ब्रह्म रूप ही जगत है और अलिंग स्वरुप स्वयं इसके बीज बोने वाले हैं तथा वही परमेश्वर हैं। क्योंकि योनी ( प्रकृति ) और बीज तो निर्जीव हैं यानी व्यर्थ हैं। किन्तु शिव ही इसके असली बीज हैं। बीज और योनि में आत्मा रूप शिव ही हैं।