Friday 5 October 2012

YOG DARHSAN 2

11. पहले अनुभव किये गए विषयों का छिपा न रहना अर्थात प्रकट हो जाना स्मृति कहलाती है।

12. चित वृतियों का निरोध अभ्यास से होता है।

13. वहाँ चित की स्थिरता के लिए जो प्रयास किया जाता है उसे अभ्यास कहते हैं।

14. किन्तु वह अभ्यास लम्बे समय तक निरंतर और सत्कारपूर्वक सेवन किए जाने पर दृढ़ स्थिति वाला हो जाता है।

15. देखे हुए और सुने हुए विषयों में जो पूर्णरूपेण तृष्णा रहित है , ऐसे चित की अवस्था को वैराग्य कहते हैं।

16. पुरुष ( आत्मा ) के ज्ञान से प्रकृति के गुणों में तृष्णा का पूरी तरह अभाव हो जाना परम वैराग्य कहलाता
है।

17. वितर्क , विचार , आनंद एवं अस्मिता इनके अनुगम सहयोग अथवा सम्बन्ध से सम्प्रज्ञात योग की स्थिति आती है।

18. जिसकी पूर्व अवस्था विराम प्रत्यय का अभ्यास है तथा जिसमें चित की स्थिति मात्र संस्काररूप ही शेष बचती है , वह असम्प्रज्ञात योग है।

19. असम्प्रज्ञात समाधि विदेह और प्रक्रितिलय वाले योगियों की होती है।

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