Saturday 29 December 2012

छन्दोग्य  उपनिषद ( 3.12)

6. गायत्री रूप में व्यक्त परब्रह्म की यह महिमा है, परन्तु वह विराट पुरुष उससे भी बरा है। यह समस्त भूतों से विनिर्मित प्रत्यक्ष जगत उसका एक ही पाद है, उसके शेष तीन पाद अमृत स्वरुप प्रकाशमय आत्मा में अवस्थित हैं।

7-9. वह जो  विराट ब्रह्म है, वह पुरुष के बहिरंग आकाश रूप में है, वही पुरुष के अन्तरंग आकाश रूप में भी है। जो भी पुरुष के अन्तरंग आकाश रूप में है, वही पुरुष के अन्तःहृदय के अन्तरंग आकाश रूप में है। वह अन्तरंग आकाश सर्वदा पूर्ण और अपरिवर्तनीय है। जो साधक इस प्रकार उस ब्रह्म स्वरुप को जानता है वह सर्वदा पूर्ण और अपरिवर्तनीय संपदाएं प्राप्त करता है।

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